रविवार, 31 जनवरी 2010

श्लीलता और अश्लीलता

श्लीलता और अश्लीलता पर समाज में सदियों से बहसें चलती रही है, उस वक़्त भी जब किसी महिला की नग्न मूर्ती बनाई गयी और उसे कला का नाम दिया गया था. मतलब यह कि हर काल में दो धराये बहती रहती है. आज भी यही हो रहा है. हम प्रगतिशीलता की, खुलेपन की बाते करते है, और शौचालय या स्नानघर (चाहे तो आप बाथरूम कह लें)में दरवाजे लगाते है. वहां कोई खुलापन नहीं है. पूरी दुनिया में कही ऐसा नहीं है. चाहे अमरीका हो या ब्रिटेन. क्यों? वहां तो बहुत ज्यादा खुलापन है? फिर वहां ऐसा क्यों..? इसलिए, कि  मर्यादा नाम की भी कोई चीज़ होती है. लेकिन इस वक्त अगर मै हिन्दी लेखन की बात करुँ तो एक ऐसी धारा बह रही है, जो खुद को उत्तराधुनिक मानती है, और जो यह दर्शन परोसने की कोशिश कर रही है, कि स्त्री की देह उसकी अपनी है, वह उसे जैसा चाहे रखे. ढंके, बेचे, सार्वजनिक करे, उसकी जो मर्ज़ी हो करे.
लेखन में भी यही हो रहा है.खुलेपन के नाम पर, उन्मुक्तता के नाम पर, आजादी के नाम पर जो लेखन हो रहा है, उसमे सारी मर्यादाएं टूट रही है. लेखिकाएं अश्लील दृश्यों का खुल कर वर्णन कर रही है, और उनके लेखन को बोल्ड निरूपित किया जा रहा है. जो जितना नंगा है, वह उतना आधुनिक है. इसीलिए अब स्त्री-देह पर कपडे का महत्त्व कम होता जा रहा है. स्त्री की देह अब खुल कर सामने लाई जा रही है, खुद स्त्री के द्वारा. और इसे बताया जा रहा है, कि यह आधुनिकता है. बोल्डनेस है. सलवार-कुरता या साड़ी वाली औरत पिछडी हुई है. जो देह दिखा रही है, और अंगरेजी भजी बोल रही  है, वह मॉडर्न है. लेखन में भी जो लेखिका सम्भोग के दृश लिखरही है, समलैंगिकता का विन्यास गढ़ रही है, वह बड़ी बोल्ड है. इतने सालों के लेखन में मेरे सामने भी कई अवसर आये जब मै भी अपने उपन्यासों  या कहानियों में दृश की माँग  कह कर , और बोल्डनेस दिखाने के नाम पर -बड़ी चालाकी से अश्लीलता परोस सकता था, लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया. क्योकि मुझे लगा कि जब पूरा समाज ही पतन को आधुनिकता समझाने की भूल कर रहा हो, तब लेखक तो यह भूल न करे. वह तो मर्यादा में रहे. सभी पतित हो जायेंगे, तो समाज को दिशा कौन दिखायेगा. ये भी बात है, कि अब लेखन से कितने लोग  दिशा ग्रहण करते है, लेकिन कोशिश यही होनी चाहिए कि लेखक मूल्यों कि सर्जना करे. लेकिन अब ये सब बेमानी है.
कुछ लेखिकाए लोकप्रिय होने के चक्कर में साहित्य में खुल कर अश्लीलता परोस रही है, और इनको चने के झाड में चढ़ाने वाले घटिया आलोचक और संपादक भी है, जो इनका महिमा मंडन कर रहे है और  सम्मान कर रहे है. ऐसे संक्रमण काल में अश्लीलता के विरोध में उठी आवाजों का कोई ख़ास अर्थ नहीं. फिर भी आवाज़ उठानी चाहिये. हम अन्दर से नंगे है. बाथरूम में, शौचालय में नंगे है, लेकिन सड़क पर हम कपड़ों में होते है. क्यों.?जो लोग नंगेपन के इतने ही पक्षधर है, वे सडको पर भी नंगे क्यों नहीं घूमते.? जाहिर है, कही न कही लोक-लाज का भय है. फिर साहित्य में ही क्यों हम आधुनिक या बोल्ड होने में तुल गए है..?
बोल्ड लेखन का अर्थ अश्ल्लीलता फैलाना नहीं होना चाहिए. बोल्ड लिखना है, तो अन्याय के खिलाफ बोल्ड लिखें, अत्याचार के खिलाफ लिखें. सामजिक बुराइयों के  खिलाफ लिखे. ये क्या बात हुई कि दो सहेलियां मिली और सेक्स शुरू हो गया. अरे भाई, दो सहेलियां मिल कर किसी बलात्कारी को पकडे, किसी अन्याय का मुकाबला करे, महिलाओं को एकजुट करे.. रतिक्रिया ही न करे. चलो मान लिया, कि कर भी रही है, तो प्रतीकों से काम चला लो भाई, कि ''रीमा ने सीमा के गले से लगा लिया, और.....'' पर्याप्त है इतना. बात खत्म हो जायेगी. पाठक को भी कुछ कल्पना करने दो. उसकी बुद्धि पर भी भरोसा रखो. क्या तुम ही सब खोल दोगे ? लेकिन नहीं इतने से बात नहीं बनेगी. रीमा सीमा के एक-एक कपडे उतारेगी, फिर  एक-एक अंग को देखेगी, उसका वर्णन करेगी, फिर रति का लंबा वर्णन भी होगा. तभी तो साबित होगा कि लेखिका बोल्ड है. मन-बहन की गाली भी  होगी. हद है. जो हो रहा है, वह दिखा रहे है, सदियों से वही कुछ हो रहा है, जिसका नतीजा ही यहाँ संसार है, तो क्या उसी का वर्णन होता रहे..?
देश-समाज, सभ्यता, जीवन-मूल्य,  नैतिकता, श्लीलता, मर्यादा, संस्कृति, ये सब को देश निकाला दे दिया जाए.? मेरी बहनों, मेरे लेखकों, इस देश की पश्चिमी-ललक को पहचानो, इस देश का भारतीयपन ख़त्म न होने पाए. अश्लीलता हर काल में बुरी रही है, उस वक्त भी जब नग्न मूर्तियाँ बनायी जाती थी. यह उदाहरण न दिया जाए कि खजुराहो या काम-कला की मूर्तियों को पूरे समाज की स्वीकृति थी. उसका विरोध करने वाले लोग तब भी हाशिये पर थे, आज भी है, कल भी रहेंगे. फिर भी विरोध होगा.

बुधवार, 27 जनवरी 2010

छत्तीसगढ़ की डायरी-1

नक्सलियों से निपटने सेना की जरूरत नहीं
बस्तर में नक्सलियों से निपटने के लिए सेना की जरूरत नहीं है। यह बात एक बार फिर सामने आई है। और बात कही है केंद्रीय गृह मंत्री ने। पिछले दिनों वे राजधानी में थे। एक बैठक में उन्होंने कहा कि हमारी पुलिस और अर्धसैनिक बल ही पर्याप्त है। सचमुच सेना की मदद लेने के अनेक खतरे भी हैं। सेना सीमा पर ही ठीक है। आंतरिक मामलों से निपटने के लिए पुलिस और अर्धसैनिक बल ठीक रहते हैं। आमआदमी तो खैर इनको भी झेलना भी पड़ता है, फिर भी कोई बात नहीं, कुछ काम तो खैर होता ही है। लेकिन सेना  अगर कार्रवाई करती है, तो बहुत से निर्दोष भी चपेट में आ जाते हैं इसलिए जो लोग यह कहते हैं, कि नक्सल समस्या के समाधान के लिए सेना की मदद ली जाए, वे लोग उसके दुष्परिणामों पर विचार नहीं करते। इसलिए गृहमंत्री के बयान का स्वागत ही होना चाहिए, और सरकार की कोशिश यह होनी चाहिए कि वह खा-पीकर अघाई-सी पुलिस को चुस्त करे ताकि वे दुरुस्त हो कर नक्सलियों का मुकाबला कर सकें।
नये राज्यपाल का आशावाद
नरसिंहन जी की जगह शेखरदत्त ने पदभार ग्रहण किया है। श्री दत्त यहाँ रह चुके हैं। बीस साल पहले वे रायपुर के कमिश्नर थे। अब राज्यपाल  के रूप में उनकी नई पारी है। इस बीच लम्बा अनुभव भी वे ले चुके हैं। उन्होंने शपथग्रहण के बाद जो कुछ कहा, उसे देख कर यही लगता है, कि वे भी कुछ बेहतर करके दिखाएँगे। नक्सली समस्या के सामाधान के लिए उन्होंने कहा कि हम विकास के रास्ते पर चल कर नक्सली समस्या से लड़ेंगे। यह सकारात्मक सोच है। छत्तीसगढ़ में करोड़ों-अरबों का नुसकसान कर चुके नक्सलियों को मुँहतोड़ •ावाब देना है तो विकास ही एक रास्ता है। आज बस्तर शोषण का अड्डा बन गया है। नक्सली भी शोषण कर रहे हैं और तंत्र भी कर रहा है। दोनों के बीच आदिवासी पिस रहे हैं। इन सब का फायदा कोई तीसरा भी उठा रहा है। इसलिए यह जरूरी है कि बस्तर में ईमानदारी के साथ विकास कार्य हों, और भ्रष्ट अफसरों की खबर ली जाए। 
बुरे फँसे काँग्रेसी विधायक और महापौर...
अतिरिक्त सद्भावना दिखाना भी खतरे से खाली नहीं होता। इस चक्कर में काँग्रेस की महापौर किरनमयी नायक और काँग्रेस के विधायक महंत रामसुंदर दास जी फँस गए। अब आलाकमाल को सफाई देनी पड़ रही है। हुआ यह कि पिछले दिनों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघ चालक भागवत जी राजधानी पधारे। स्वयंसेवकों का  पथसंचलन निकला तो महापौर ने एक जगह इनका स्वागत कर दिया। महंत जी ने भी स्वागत कर दिया। बस, काँग्रेस को यह घटना नागवार लगी। उन्होंने नोटिस भेज दिया। विचारधारा की दृष्टि से काँग्रेस और आरएसएस का कोई तालमेल नहीं है इसलिए काँग्रेस का भड़कना स्वाभाविक ही था। फिर भी सद्भावना भी कोई चीज होती है। शहर में हजारों स्वयंसेवक जमा है। जनप्रतिनिधि के रूप में स्वागत कर देने से कया फर्क पड़ जाता? विचारधारा अपनी जगह है, और सामाजिक लोकाचार अपनी जगह।
मेयर का सफाई अभियान
राजनीति में कई बार अनेक नौटंकियाँ करनी पड़ती हैं। लेकिन ये नौटंकियाँ बेकार नहीं जाती। इसका असर भी होता है। पिछले दिनों रायपुर की मेयर सफाई अभियान पर निकली। कुछ जगह पहुँच कर फावड़ा हाथ में लेकर नाली साफ करने लगी। उनको देख कर पार्षद भी भिड़ गए।  इनको लगा देख कर सफाई कर्मियों को शर्म आई होगी, वे अपने काम को ईमानदारी के साथ करने लगे, लेकिन चार दिन की चाँदनी वाली हालत ही रही। फिर गंदगी, फिर बदहाली। जब तक नागरिक चेतना विकसित नहीं होगी, राजधानी की गंदगी दूर नहीं हो सकती। जिनके जिम्मे सफाई का काम है, वे ठीक से काम ही नहीं करते, और इधर आम लोग भी जहाँ-तहाँ गंदगी करते रहते हैं। ऐसे में स्वाभाविक है कि मेयर विचलित हों। खुद सफाई का स्वांग करने के पीछे भावना यही है, कि लोग अपनी जिम्मेदारी समझें और राजधानी को साफ रखे।
अफसर करे  न चाकरी
राजधानी की मेयर नई हैं। महिला है। उनमें काम करने का नूतन उत्साह है, लेकिन अफसर तो पुराने हैं। घाघ हैं। वे काम ही नहीं करते। असहयोग कर रहे हैं। मेयर का दर्द यह है कि अफसर उनकी बात नहीं सुनते। कहना नहीं मानते। मेयर को चिंता नहीं करनी चाहिए क्योंकि  सिस्टम तो पहले से ही बिगड़ा हुआ है। जो अफसर काम न करने का आदी हो चुका है, वह इतनी जल्दी कैसे सुधरेगा? उन पर तो निरंतर दबाव बनाना पड़ेगा। कड़ी कार्रवाई करनी होगी, जब सुधरेंगे लोग। इसलिए नर हो न निराश करो मन को ,वाले गीत को ध्यान में रख कर मैडम मेयर को काम करना चाहिए। वेशक यह कारण भी हो सकता है कि मेयर महिला है। मेयर ने कुछ कहा है कि महिला होने के कारण लोग उन्हें महत्व नहीं दे रहे होंगे, लेकिन महिला ही पुरुषों को हिला सकती है। यह बात भी किसी से छिपी नहीं है। इसलिए पुरुष अफसरों सावधान..।
पुलिस का डंडा-प्रेम
यह तो अमर है। लिख-लिख कर कितने लोग मर-खप गए, लेकिन डंडा ऊँचा रहे हमारा..। इसे कोई फर्क नहीं पड़ा। अँगरेजों के समय भी खूब चला और अब भी चल रहा है। पिछले दिनों बिलासपुर के पास बोदरी नगर पंचायत में अनशनकारियों पर पुलिसिया डंडा चला। महिलाओं को भी नहीं छोड़ा। डंडे की आँख नहीं होती, दिल नहीं होता। वह चलता है, तो बस, चलता है। वहाँ लोग चुनाव स्थगित करने की माँग लेकर अनशन कर रहे थे। आंदोलन को कुचलने के लिए पुलिस दबाव बना रही थी। लोग भड़क गए। नारेबाजी तेज हो गई। बस पुलिस को ऐसे ही मौकों का इंतजार रहता है। यह केवल बोदरी का दर्द नहीं है, पूरे छत्तीसगढ़ का भी दर्द है। लेकिन इस दर्द की फिलहाल कोई दवा नजर नहीं आ रही है।
शबरी कन्या आश्रम की रजत जयंती
यहाँ चल रहा शबरी कन्या आश्रम ने पच्चीस वर्ष पूरे कर लिए। पिछले दिनों आश्रम ने रजत जयंती मनाई। वनवासी विकास समिति यह आश्रम चलाती है। इस आश्रम की खासियत यह है कि यहाँ नार्थ ईस्ट की बच्चियाँ रहती हैं। 67 बच्चियों में 62 बच्चियाँ अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम, नागालैंड, असम, मणिपुर, त्रिपुरा और मेघालय से आई हैं। इनका लालन-पालन, शिक्षा-दीक्षा सब समिति के माध्यम से हो रहा है। ये बच्चियाँ यहाँ रह कर संस्कार ग्रहण कर रही है। वहाँ की संस्कृति को छत्तीसगढ़ से परिचित करा रही हैं। इस आश्रम को एक ट्रस्ट ने दस लाख रुपए दिए। ऐसे काम करने वाले आश्रमों को मदद करने के लिए धनपतियों को आगे आना ही चाहिए।

सुनिए गिरीश पंकज को