सोमवार, 8 फ़रवरी 2010

छत्तीसगढ़ के मीडिया का स्याह चेहरा....:

छत्तीसगढ़ में मीडिया का जो चेहरा बनाता जा रहा है, उसे देख कर रोना आता है.
अब सच को सच लिखना ही कठिन है, बाकी आप कंडोम के विज्ञापन छापे, लिंगवर्धक यंत्र के विज्ञापन भी छाप सकते है, अंधविश्वास फैलने वाली खबरे, हो या फ़िल्मी दुनिया कि नंगी सब चलेगा, लेकिन कडवी सच्चाइयां नहीं चलेंगी..पुलिस अत्याचार की  खबरे, दबा दी जायेंगी, नेता और अफसरों के भ्रष्टाचार की खबरे भी दबा कर दी जायेंगी. यह सब इसलिए लिखना पड़ रहा है, कि पिछले दिनों रायपुर के एक अफसर के यहाँ आयकर विभाग का छापा पडा, अरबों की दौलत का पता भी चला. यह भी पता चला कि बाबूलाल अग्रवाल नामक इस अफसर ने अनेक गुमनाम खाते खोल कर रखे थे. नौकर-चाकरों के नाम पर लाखो रुपये जमा थे. सब कुछ सामने आ रहा है, लेकिन यहाँ मीडिया- एक-दो को छोड़ दे तो-अधिकाँश की निर्लज्जता देखते ही बन रही है. अफसर के विरुद्ध आने वाली खबरों को दबाया जा रहा है. साफ़-साफ़ समझ में आ रहा है. ये टीवी चेनल....? दो कौड़ी की खामारों को दिन भर दिखाते रहेंगे, सरपंच ५० रुपये कि रिश्वतखोरी करते पकड़ा जाएगा, तो दिन भर खबर चलेगी, या डाग शो का आयोजन होगा तो सचित्र खबर दिखाई जाती रहेगी, लेकिन देश को खोखला करने वाले कलंकी अफसरों की काली करतूतों, का कोई विस्तृत समाचार नही दिखाया गया. हाँ, एक लाईन की खबर (स्ट्रिप्स) ज़रूर दिखाई जा रही है. गोया बहुत बड़ा काम किया जा रहा है. ऐसा क्यों...? एक ही कारण है कि पूरा अधिकाँश लोग बीके हुए है. यह भी आशंका व्यक्त की जा सकती है, कि जहाँ इस अफसर के खिलाफ ज़ोरदार ढंग से खबरें छाप रही है, उसका एक कारण यह भी हो सकता है, कि खबरें न छापने का  सौदा पता ही न हो.
छत्तीसगढ़ के मीडिया का निरंतर पतन मैंने देखा है. यह सुनी हुई बात नहीं, मेरे अनुभव की बातें है, मै ३० सालों से सक्रिय पत्रकारिता में हूँ. अनेक बार मेरे सामने भी प्रलोभनों के अवसर आये, लेकिन पत्रकारिता की शुचिता को घोल पी चुके हम लोग बिक नहीं सके, लेकिन अब की नई पीढ़ी आराम से बिक जाती है. (वैसे बिकने वाले होशियार लोग तो उस वक्त भी थे...) बिके भी क्यों न..? जब अखबार मालिक बिका हुआ है, अखंड धन्धेबाज़ है, सौ ठो मक्कारियां कर रहा है, तो पत्रकार बेचारा नैतिकता की लाश कब तक ढोयेगा...? वह भी '''मुख्यधारा'' में बहने लगता है. बस इसी का नतीजा है कि खबरें दबा दी जाती है. यहाँ छत्तीसगढ़ में यही हो रहा है. बाहर भी यही हो रहा है. यहाँ की सरकार भी कमाल की है. अब तक भ्रष्ट अफसर पर कर्रवाई नहीं की गई, यह भी दुखद है. ऐसी लेटलतीफी सरकार को भी कटघरे में खडा कर देती है.
अगर हम एक मजबूत लोकतंत्र को देखना चाहते है तो यह बेहद ज़रूरी है, कि भर्स्ट ताकतों पर तत्काल कार्रवाई हो. हैरत तो यह भी होती है, कि विपक्ष ने मुर्दा शांति से भरा प्रतिवाद ही किया, प्रेस विज्ञप्ति जारी कर दे, निंदा कर दी, बस हो गया काम... धरना-प्रदर्शन होना था, रास्ता जाम की नौबत आनी चाहिए थी. जिस तेजी के साथ भ्रष्ट चेहरे सामने आ रहे है, उस हिसाब से छत्तीसगढ़ के लोगो को आंदोलित हो कर सामने आना चाहिए, लेकिन यहाँ पे सब शान्ति-शान्ति है. मैंने कभी लिखा था-
बहरें सुन लें इसीलिये तो शोर मचाना पड़ता है
रोज़ सुबह के लिए सूर्य को लहू बहाना पड़ता है.
कब तक मुर्दों जैसा हमको जीना होगा बस्ती में,
ज़िंदा है तो इन्कलाब का रूप दिखाना पड़ता है.
और भी कुछ शेर है इसमे . फिलहाल इतना ही काफी है. दरअसल ब्लॉग लेखन की त्रासदी यही है, कि लिखने का अंतत असर क्या होगा..?
कौन पढ़ेगा?
किसके लिए लिखें..?
होना-जाना तो कुछ नहीं है. फिर भी मन की पीड़ा को स्वर मिल जाता है. भड़ास ही सही शब्द है. चलिए, लोग पढ़े, समय के दर्द को समझे, कहीं कोई चेतना जगे, बर्बरता, बदमाशियां, भ्रस्टाचार आदि के खिलाफ लोग जगे, एक नैतिक लोकतंत्र बने, इसी कामना के साथ.... 

शनिवार, 6 फ़रवरी 2010

छत्तीसगढ़ की डायरी-3

छत्तीसगढ़ के घाट पर, भई अफसरन की भीर
रोज़ यहाँ रूपया घिसैं,घर सब खाए खीर..
अभी पिछले दिनों रायपुर में एक आईएएस बाबूलाल अग्रवाल के यहाँ छापा मारा गया तो अरबों की संपत्ति का पता चला। इससे पता चलता है, कि हमारे अफसर कितने समृद्ध हैं। देश में एक अच्छा संदेश जाता है, कि जिस राज्य के अफसर अरबों की कमाई करने वाले हों, उस राज्य की जनता भी जरूर सुखी-सम्पन्न होगी। आईएएस के यहाँ छापे से पता चला कि उनके नौकर-चाकर के नाम पर भी लाखों रुपये जमा है। बताइए, ऐसा समाजवाद चल रहा है, और देश को पता ही नहीं, कि साहब तो मालामाल हो ही रहा है, उसके नौकर भी फल-फूल रहे हैं। (अब नौकर-नौकरानियों को इस बात की खबर न हो, तो कोइ क्या कर सकता है)छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद से ही यहाँ पदस्थ अफसर समझ गए थे, कि ये तो स्वर्ग है। लूटे जाओ। अधिकांश आइएएस  या दीगर अफसरों ने इस राज्य को लूटगढ़ में तब्दील कर दिया है। एक छापे से अरबों की सम्पत्ति का खुलासा हुआ। अभी तो यह शुरुआत है। आयकर विभाग को अपना अभियान जारी रखना चााहिए। जनता को पता तो चले कि आखिर राज्य को चूसने वाले अफसर कितने हैं।
छत्तीसगढ़ के घाट पर, 
भई अफसरन की भीर,
रोज यहाँ रूपया घिसैं, 
घर सब खाए खीर..
भ्रष्टाचार का खेल....

छत्तीसगढ़ के भोलभालेपन को केवल बड़े अजगरों उर्फ अफसरों ने ही नहीं समझा है, छोटे-छोटे अफसर भी समझ चुके हैं, कि यहाँ तो भ्रष्टाचार की गंगोत्री बहाई जा सकती है। विभाग कोई भी हो, वहाँ खुला खेल फर्रुखाबादी चल रहा है? ऐसा राम-राज कहीं नहीं होगा। खरीदी में, निर्माण कार्यों में डट कर चल रहा है भ्रष्टाचार। लोग पकड़ में भी आ रहे हैं, कुछ फरार भी है, लेकिन प्यार  किया तो डरना क्या? अभी भी खेल जारी है। मौके का फायदा उठा कर काँग्रेस भी सामने आ गई(गोया उसके राज में सब कुछ ठीक-ठाक था। लोग जानते हैं कि उस दौर में भी भ्रष्टाचार चरम पर था) काँग्रेस ने मंत्रियों एवं अफसरों की सम्पत्ति सार्वजनिक करने की माँग की है। यह अच्छी पहल है। हालांकि यह भी सत्य है कि जो कुछ सार्वजनिक होता है, वह ऊँट के मुँह में जीरा की तरह होता है, लेकिन कुछ तो होता है। जनता इतने से ही संतुष्ट हो जाती है। बहरहाल करोड़ों की कमाई करने पर आमादा तंत्र से कौन ये सब काम करवा पाएगा, भगवान जाने। मुख्यमंत्री से ही उम्मीद है कि वे कुछ करेंगे।
स्वागतेय है यह घटना
 राजधानी के पास के शहर दुर्ग की घटना का स्वागत किया जाना चाहिए। वहाँ के मशहूर स्वतंत्रता सेनानी और छत्तीसगढ़ी साहित्यकार निरंजनलाल जी गुप्ता के निधन के बाद उनकी बेटी और बहुओं ने उनकी अर्थी को काँधा दिया। बेटी ने मुखाग्नि भी दी। यह बड़ी बात है। अमूमन ऐसा होता नहीं है। परम्परा भी नहीं है। लेकिन गुप्ता जी अंतिम इच्छा यही थी। उनके जाने के बाद एक नया इतिहास लिखा गया। ठीक बात है, आखिर नारियाँ अपने परिजन को कंधा क्यों नहीं दे सकती? वे भी तो अपने परिजन के लिए उतनी ही आत्मीय थी, जितने घर के दूसरे पुरुष? औरतों को भी हक मिलना चाहिए। इस दृष्टि से गुप्ताजी के परिवार ने जो कुछ किया उसका स्वागत हो रहा है। गुप्ताजी नारियों को आगे लाने की कोशिश किया करते थे। उनकी रचनाएँ इस बात का सबूत हैं। कब तक समाज में यह प्रवत्ति बनी रहेगी कि मृत्यु के समय अंतिम संस्कार से महिलाओं को ही दूर रखा जाए। महिलाएँ कमजोर नहीं होती।
ग्रामीण खेलों का भी संरक्षण हो
 आजकल क्रिकेट को क्रेज इतने जोरों पर है कि हाकी जैसे खेल तक हाशिये पर चले गए हैं, तब ग्रामीण या पारम्परिक लोक खेलों को पूछता ही कौन है लेकिन ऐसी बात नहीं है। राजधानी में पिछले दिनों लोक खेलों का  आयोजन किया गया। इसमें लोगों ने सोत्साह भाग लिया। लोक खेल एसोसिएशन के अध्यक्ष चंद्रशेखर चकोर इस आयोजन में आठ जिलों के दो-तीन सौ लोगों ने हिस्सा लिया। चकोर बरसों से ऐसे आयोजन करते रहे हैं। उन्होंने लोक खेलों पर पुस्तकें भी लिखी हैं। ऐसे आयोजन हर जिले में होने चाहिए। और सरकार का इसे पूर संरक्षण भी मिलना चाहिए। ऐसे आयोजनों में गाँव के ही लड़के भाग लेते हैं,ऐसा नहीं होना चाहिए। शहर के लोगों को भी परम्पराओं का पता चले। जींस और टॉप हपहन कर खुद को आधुनिक समझने की भूल करने वाली नई पीढ़ी को भी पता चले कि ग्रामीण खेलों में भी आनंद है। आनंद ही नहीं, परमानंद है। मनोरंजन भी है तो स्वास्थ्य भी है। सरकार और समाज के लोग पहल करेंगे तो वातावरण बन सकता है।
वेलेंटाइन डे के पहले ही...?
वेलेंटाइन डे(14 फरवरी)अभी आया नहीं है, लेकिन राजधानी रायपुर  में बजरंग दल वाले सक्रिय हो गए हैं। उन्होंने चेतावनी दी है कि इस दिन शालीनता बरती जाए। ठीक बात भी है। वेलेंटाइन डे पश्चिमी संस्कति की देन है। इस दिन पूरे देश में जैसी अराजकता, जैसी फूहड़ताएँ देखने को मिलती है, उसे े र हैरत होती है, कि भारतीय समाज कहाँ जा रहा है? पश्चिमी संस्कति अह लोगों को आर्षित कर रही है। यही कारण है कि अश्लीलता भी स्वीकार्य होती जा रही है। ऐसे समय में अगर बजरंग दल वाले चेतावनी देते हैं तो गलत नही करते। क्योंकि अकसर यही देखा गया है कि वेलेंटाइन डे पर लड़के-लड़कियों को कुछ ज्यादा ही मस्ती चढ़ जाती है। इतनी कि वे भूल जाते हैं कि वे भारतीय है। उन्हें मर्यादा में रहना चाहिए। हाँ, बजरंग दल वाले पूरे प्रदेश में इस दिन देखेंगे कि वेलेंटाइन डे की आड़ में कुछ मनचले अश्लील हरकतें न करें। लेकिन दल वाले भी सात्विक तरीके से ही विरोध करें। वे हिंसा का सहारा न लें।
लुभावने पैकेज..?
 ठीक बात भी है। लुभाना भी जरूरी है. तभी तो आकर्षण बनेगा। नक्सलियों के आतंक के कारण अब कोई बस्तर जा कर काम नहीं करना चाहता। जगदलपुर में मेडिकल कोलज तो बन गया है, लेकिन बहुत से विभाग खाली पड़े हैं। अब सरकार ने समझदारी का काम किया है। वहाँ के लिए आकर्षक पैकेज दिया है। अच्छा वेतनमान मिलेगा तो डॉक्टर जा सकते हैं। हर महीने एक लाख पैंसठ हजार रुपए वेतन ठीक है। अन्य सुविधाएँ भी हैं। उम्मीद है, कि अब जगदलपुर मेडिकल कालेज की ओर डॉक्टर जरूर आकर्षित होंगे।  लेकिन इन सब के साथ-साथ एक और महत्वपूर्ण बात का ध्यान रखना होगा, और वो है सुरक्षा का पैकेज। वेतन के साथ साथ तन की सुरक्षा भी जरूरी है।
नक्सली वारदातों में कमी?
 केंद्र का तो ऐसा ही मानना है कि छत्तीसगढ़ में नक्सल-वारदातों में कमी आई है। अब यहाँ नक्सली उत्पात जारी है तो कोई क्या करे? केंद्र के पास आँकड़े हैं। ये माना कि कोई बड़ी वारदात नहीं हुई है, लेकिन रोज कुछ न कुछ हरकतें तो हो ही रही हैं। फिर भी संतोष किया जा सकता है, कि बड़ी घटना नहीं हुई है। जैसे सामूहिक हत्या। विशेष पुलिस फोर्सों की तैनाती भी एक कारण है। हो सकता है, भविष्य में और दबाव बने और नक्सलियों को बोरिया-बिस्तर बाँधना पड़ जाए।

सोमवार, 1 फ़रवरी 2010

छत्तीसगढ़ की डायरी

सच्चा पंचायती राज कब आएगा..?
छत्तीसगढ़ में पंचायत के चुनाव भी हो गए। अब जनता के लोग गाँव-गाँव में नए भारत के निर्माण के लिए अपना योगदान करेंगे। गाँधीजी यही चाहते थे। लेकिन पंचायती राज की जो असलियत है, वह किसी से छिपी नहीं है। राजधानी में पिछले दिनों कुछ बुद्धिजीवियों ने यही राय व्यक्त की, कि आज भी भाग्यविधाता कलेक्टर है। अफसर है। पंच-सरपंच अफसरों का मुँह ताकते हैं। अफसर अपना खेल करते हैं। धीरे-धीरे पंचायत व्यवस्था प्रशासन तंत्र के आगे घुटने टेक देती है और वही सब होता है, जो अफसर चाहते हैं, या फिर यूँ कहें कि जो यह व्यवस्था चाहती है। वह पंचायती राज बेमानी है, जो अफसरों के भरोसे चलती है। अफसर नहीं पंचायत पावरफुल होनी चाहिए। पंचायतें अफसर की कुंडली बनाए न कि अफसर। अभी उल्टा हो रहा है। अगर यही पंचायती राज है, तो एक छल है।  पंचायतीराज को ताकतवर बनाना है तो ग्राम सभा को भी मजबूत करना होगा और सरपंच को और अधिक अधिकार देने होंगे। मुख्यकार्यपालन अधिकारी पर सरपंच राज करे, न कि अधिकारी। बहरहाल, लोकतंत्र की यह शुरुआत है। कमिया हो सकती है  लेकिन ये दूर भी की जा सकती हैं।
महिला मजदूर बनी सरपंचयह भी एक अच्छी खबर आई है कि एक गाँव में एक मजदूर महिला सरपंच बन गई। इससे पता चलता है, कि हम लोकतंत्र को मजबूत करने की दिशा में ही आगे बढ़ रहे हैं। पंचायत चुनाव में भी अब बाहुबल या धनबल का साम्राज्य चलता है। धन और शराब का खेल गाँवों में भी हो रहा है। ऐसे समय में गाँव में किसी मजदूर को सरपंच बनने का मौका मिले यह बड़ी बात है। गाँवों में भी शहर में बसने वाले धनपति चुन लिए जाते हैं। लेकिन एक मजदूर महिला, जिसके पास दो जून की रोटी का ठीक से जुगाड़ न हो, वह भी अगर सरपंच पद के लिए खड़ी कर दी जाए, और जीत भी जाए, तो इसे सुखद बात दूसरी नहीं हो सकती। इससे साफ -साफ यह बात समझ में आती है, कि कभी-कभार लोग पैसेवाला नहीं, काम करने वाला प्रत्याशी भी चुनते हैं।
घोटालेबाज  औरतें....घोटाले केवल आदमी ही नहीं करते, औरतें भी करने लगी हैं। औरतें यानी साधी-सादी, काम से काम रखने वाली, लेकिन जब नारी मुक्ति का दौर चला है, औरतें भी चालाक होने की कोशिश कर रही हैं। जब आदमी भ्रष्टाचार कर सकता  है, तो औरत क्यों नहीं? वह भी किसी से कम क्यों रहे? यही कारण है कि रायपुर के एक महिला बैंक में कुछ संचालक औरतों ने खुल कर घोटाले किए। लेकिन घोटाले एक दिन मल की तरह पानी के ऊपर आ ही जाते हैं। इस बैंक का घोटाला भी सामने आया तो सारी संचालिकाएँ भूमिगत हो गई, लेकिन एक-एक करके पकड़ी भी गई। (आखिर मुखबिर भी कोई चीज़ होती है)अभी हाल ही में रायपुर में दो तथाकथित प्रतिष्ठित संचालिकाएँ पुलिस के हत्थे चढ़ी। अब जेल में हैं। और लोगों को शायद यही संदेश दे रही है, कि बुरे काम का बुरा नतीजा। लेकिन गिरफ्तारी से भी बात नहीं बन रही। जिन लोगों के पैसे डूबे, उनके पैसों का क्या होगा? वे अभी तक नहीं मिले। छाटी-मोटी राशियाँ तो मिल गई, लेकिन बड़ी रकम अब तक अप्राप्त है। पैसे तो हजम हो गया है। अब एक ही तरीका है, कि जो दोषी है, उनकी सम्पत्ति को कुर्क किया जाए, और खातेदारों को उनके पैसे लौटा दिए जाएँ। प्रक्रिया तो यही होनी है, लेकिन अभी वक्त है। खैर, देर आयद दुरुस्त आयद ...
आनंद महोत्सव का दुखदायी पहलूपिछले दिनोंरायपुर में  ईसाई समाज ने तीन दिन का आनंद महोत्सव किया। ईसाई गुरू पाल दिनाकरन जी प्रवचन देने आए। लेकिन बजरंग दल, विहिप और शिव सेना के लोगों ने इनके खिलाफ प्रदर्शन किया? इनका आरोप था कि आनंद महोत्सव की आड़ में ये लोग धर्म परिवर्तन की कोशिश कर रहे हैं। ईसाई धर्म के लोग धर्मपरिवर्तन के लिए बदनाम कर दिए गए हैं। रायपुर में आनंद महोत्सव को धर्मांतरण महोत्सव समझ कर लगातार प्रदर्शन हुए, पुलिस ने गिरफ्तारियाँ भी की। आनंद महोत्सव हुआ और हजारों लोग इसमें शामिल हुए। पूरे महोत्सव के दौरान कहीं भी धर्म परिवर्तन की बात नहीं उठी। वक्ता ने केवल प्रभू यीशु की राह पर चलने का आह्वान किया। तटस्थ लोगों की यही राय थी, कि हिंदूवादी संगठनों को समझ लेना चाहिए कि हिंदू धर्म इतना कमजोर भी नहीं है, कि कोई धर्मगुरू आएगा और सभा करेगा तो लोग अपना धर्म ही छोड़ दें।
पेड़ से दूध...?जी हाँ, पेड़ से भी कभी-कभी दूध निकलता है। और जब ऐसा हो तो सचमुच चमत्कार ही है। फिर चमत्कार को अपने यहाँ नमस्कार करने की परम्परा भी रही है। राजधानी में एक पेड़ से जब अचानक दूध जैसा कुछ द्रव निकलता देखा गया तो कुछ धार्मिकों ने इसे चमत्कार समझा और पेड़ की पूजा होने लगी। धार्मिकजन बहुत जल्द पूजा-पाठ में भिड़ जाते है। लेकिन बाद में वैज्ञानिकों ने समझाया कि भाइयो, यह कोई ईश्वरीय चमत्कार नहीं है, ऐसा अकसर होता रहता है। जब पेड़ के बीच का भाग सूखता है, तो इसमें वैक्टीरिया आ जाते हैं। इसके कारण द्रव और गैस भी बनती है तो एक दबाव के चलते पेड़ से दूध जैसा द्रव निकलने लगता है। अच्छी बात है, कि लोगों को बात समझ में आ गई, लेकिन इससे एक फायदा हुआ कि पेड़ को पूजा गया। कम से कम यह पेड़ तो अवैध कटाई का शिकार नहीं होग।
गुरूजी स्कूल नहीं आते...अधिकांश सरकारी स्कूलों का यही दर्द है। गाँवों की हालत और खराब है। वहाँ काम करने वाले कुछ शिक्षक मुफ्तखोरी के शिकार हो गए हैं। वे शहर में रह कर अपने दस तरह के गोरखधंधे करते हैं और गाँव जाते ही नहीं। वेतन वृद्धि भी चाहिए और भत्ते-फत्ते भी, बस पढ़ाई नहीं। धरसींवा के पास स्थिति गाँव मोहदी के बच्चे भी कब तक बर्दाश्त करते? चले आए राजधानी। सीधे प्रेस क्लब ही पहुँच गये। बताया पत्रकारों को अपने गाँव का हाल। इस बात को शिक्षा मंत्री ने गंभीरता से लिया और चेतावनी दे दी कि अगर शिक्षक स्कूलों से अनुपस्थित पाए गए, तो उन्हें बर्खास्त कर दिया जाएगा। उम्मीद है, नौकरी बचाने के लिए यही सही, शिक्षक स्कूल तो आएँगे, अब पढ़ाएँ या न पढ़ाएँ उनकी मरजी है भाई।
यह पाँचवाँ  कुंभ भी बना रहेवैसे कुंभ तो चार ही है, लेकिन अब छत्तीसगढ़ में पाँचवाँ कुंभ बनाने की कोशिश हो रही है। राजिम में लगने वाले वार्षिक मेले को पाँचवाँ कुँभ कहा जाने लगा है। धार्मिक लोग इसका विरोध भी करते रहते हैं क्योंकि पुराणों में तो केवल चार ही कुंभ है। अब ब्रह्मा, विष्णु और महेश त्रिदेव है। कोई अचानक चौथा देव सामने ले आए, तो क्या होगा? वही बात है, लेकिन जो भी हो, राजिम कुंभ को इस दृष्टि से ही देखा जाना चाहिए कि इसी बहाने यहाँ देश भर के साधु-संत आते हैं, सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं। कलाकारों को अपनी प्रतिभा दिखाने का मौका मिलता है। इस दृष्टि से यह कुंभ बुरा नहीं है। एक सांस्कृतिक-आध्यात्मिक मेला लोगों को आपस में जोड़ता है। यह जुड़ाव बना रहे, इसलिए यह पाँचवाँ  कुंभ भी बना रहे। सरकार इसे जारी रखे। इसी बहाने लोग छत्तीसगढ़ आते है। और पूरे देश में अपने राज्य का नाम होता है।

सुनिए गिरीश पंकज को