बुधवार, 5 मई 2010

अब शांति की बात खबर नहीं बनती,...खबर बनती है अशांति. हिंसा, तोड़फोड़..

आज रायपुर के टाउन हाल में देश के विभिन्न हिस्सों से आये बुद्धिजीवियों की एक सभा हुई. प्रख्यात वैज्ञानिक प्रो. यशपाल, बुजुर्ग गांधीवादी नारायणभाई देसाई, सर्वोदयी अमरनाथजी, गाँधी शांति प्रतिष्ठान की राधा बहन, पूर्व सांसद-चिन्तक रामजी सिंह और छत्तीसगढ़ में जन्मे स्वामी अग्निवेश सहित देश के कोने-कोने से पधारे लगभग पचास शांतिकामी लोग जमा हुए. ये लोग बस्तर में हो रही हिंसा को लेकर चिंतित थे. कल ये लोग बस्तर भी जायेंगे. लोगो से बात करेंगे. बस्तर कैसे शांत हो इसका रास्ता तलाशेंगे.आज हर वक्ता ने देश के विकास पर अपनी बात रखी.लेकिन अचानक एक अप्रिय स्थिति उस वक्त निर्मित हो गयी, जब कुछ लोग सभा के बीच चले आये. इनके हाथों में तख्तियां, थी, जिन पर लिखा था. ''गो बैक'', ''शांतिवार्ता नहीं चलेगी'' ''नक्सलियों का समर्थन बंद करो'' आदि-आदि. पहले तो ये प्रदर्शनकारी मौन धारण कर आये. गांधीगीरी भी दिखाई. ये जब आये तो यशपाल जी बोल रहे थे.लगभग पचास प्रदर्शनकारी रहे होंगे. सबके सब मंच पर चढ़ गए. साथ में गुलाब के फूल लेकर आये थे. उन्होंने सबको फूल दिया, और अपनी बात रखते हुए कहा कि आप बुद्धिजीवी लोग बस्तर में जवानो की ह्त्या पर मौन रहते है,...अप नक्सलियों के समर्थक है''. यशपाल जी ने कहा-''बेटे, हमें गलत मत समझो. हम शांति के लिए आये है''. थोड़ी देर के लिए वातावरण तनावग्रस्त हो गया. तोरायपुर के गांधीवादी नेता केयूरभूषण भावुक हो कर चिल्लाने लगे कि ''तुम लोग मेरी जान ले लो, मगर जो अतिथि बाहर से आये है, उनको सुनो''. लोगों के समझाने पर प्रदर्शनकारी बाहर चले गए, लेकिन कुछ देर बाद वे फिर आ गए. इस बार वे जोर-जोर से नारे लगा रहे थे.इस बीच इलेक्ट्रानिक मीडिया के कैमरे काम करने लगे थे. तब बात समझ में आ गयी. अभी तो चले गए, थे, लेकिन जैसे ही कैमरे सक्रिय हुए तो ये भी सक्रिय हो गये. दरअसल आजकल मीडिया के कहने पर बहुत-से नेता खबर गढ़ने लगते है. कैमरे के सामने चीखने से वे हीरो बन जाते है और मीडिया का सनसनीवाला मामला भी जम जाता है. खबर हिट हो जाती है सवाल है टीआरपी का. अब शांति की बात खबर नहीं बनती, खबर बनती है अशांति. हिंसा, तोड़फोड़.. मंच पर बैठे तमाम बुद्धिजीवियों ने नवनिर्माण की बाते रखी. उस ओर किसी कि रूचि नहीं थी. मै पूरे समय तक इसीलिए बैठा रहा कि देखूं, ये लोग कहते क्या है. कहीं सचमुच नक्सलियों के पक्ष में तो बातें नहीं कर रहे हैं, अगर ऐसा होता तो मैं भी खड़े होकर हस्तक्षेप कर देता. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. वक्तागण प्रदर्शनकारियों से नाराज़ नहीं हुए, उलटे किसी ने उन्हें बेटा कहा तो किसी ने पोता. हमलोगों को दुःख इस बात का हुआ कि देश के जाने-माने बुद्धिजीवियों के साथ मेरे शहर में अभद्र व्यवहार हो गया. और वाह रे पुलिस..? वह तो मूकदर्शक बनी रही. लगा वह प्रदर्शनकारियों को ही संरक्षण दे रही है, जबकि संरक्षण मिलना था गांधीवादी लोगों को. बाहर से लोग आये हैं उन्हें सभा करने देते. खैर, कुछ देर बाद प्रदर्शनकारी चले गए तो मंच पर बैठे वक्ताओं ने शांति-सद्भावना पर अपने विचार रखे. अग्निवेश जी ने कहा- ''मै नक्सलियों की हिंसा का घोरविरोधी हूँ.'' उन्होंने अद्भुत भाषण दिया. लेकिन वक्ताओं की बात सुनाने के लिए प्रदर्शनकारी मौजूद नहीं थे. अगर वे लोग रुकते और सुनते तो समझ सकते कि बुद्धिजीवियों का दल शांति के लिए ही आया है, नक्सलियों के समर्थन के लिए नहीं. खैर जैसे-तैसे सभा तो हो गयी. अब ये शांति-दल कल बस्तर जाएगा. सभा से लौट कर मुझे लगा कि कुछ लिखना चाहिए. सो,आँखों देखा हाल लिख दिया. पूरा लिखना संभव नहीं. क्योकि पाठको के पढ़ाने की भी एक सीमाहोती है. इसलिए बस इतना ही. आग्रह यही है, कि आप मेरी कविताओं वाला ब्लॉग जरूर देखे. शांति को समर्पित एक गीत दिया है आज..

3 Comments:

बेनामी said...

गिरीश भाई, लगता है आप पूरी बात नहीं जानते| इस शान्ति यात्रा की पहली घोषणा सीजीनेट से हुयी जो धुर नक्सली समर्थक ग्रुप है| इसके एक माडरेटर जो सबसे अधिक सक्रीय भी है पर पुलिस पार्टी को बम से उड़ाने का केस भी चल चुका है|

बहरहाल, शान्ति दल मे कुछ को छोड़ दे तो बाकी सभी कल बस्तर में पुलिस हिंसा की बात करेंगे| नक्सलीयों पर हो रही कारवाही के चलते अब उनका जीना दुश्वार हो गया है| इसलिए अब गांधी के नाम पर ये बुद्धिजीवी शान्ति की पहल करेंगे| ताकि नकसलियों को सांस लेने का मौक़ा मिल सके|

आज साजिश के तहत सीधी बात की गयी है कल वे अपना असली रंग दिखाएँगे| आप आम जनता के साथ हैं, सरकार के साथ है| आप तो कम से कम इनके पक्ष में न लिखे|

व्यवधान उत्पन्न करने वाले जो भी थे वे देश के सच्चे नागरिक थे| बुद्ध्जीविय्यो को सौ जूते मारे जाने चाहिए तब एक गिनना चाहिए| ये कलंक है देश के| इन्हें लौटती डाक से चीन भेज देना चाहिए|

नरेश सोनी said...

बावा से बावा...
ये बेनामी भाईसाहब लगता है ज्यादा ही आक्रोशित हैं। शांति कौन नहीं चाहता। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि जो शांति चाहता है वह नक्सलियों का समर्थक है। कोई बुद्धिजीवी इसलिए तो कहलाता है कि वह भविष्य पर चिंतन मनन करता है और आने वाले समय के लिए आगाह करता है।

कडुवासच said...

... नक्सलवादी समस्या का समाधान ... नक्सलवाद/माओवाद ... मुझे तो नहीं लगता कि इसका समाधान शांतीवार्ता से संभव है वो इसलिये कि जो लोग शांतीवार्ता की बात कर रहे हैं उन लोगों की बात भी जंगल में घूम रहे नक्सली सुनने वाले नहीं हैं ... जंगल में घूम रहे नक्सली स्वयं-भू हो गये हैं वे किसी बुद्धिजीवी की बात सुनने वाले नहीं हैं !!!

सुनिए गिरीश पंकज को