शनिवार, 29 मई 2010

छ्त्तीसगढ़ की डायरी

यह गुंडई तो न करे पुलिस...
बिलासपुर जिले के मस्तूरी में पुलिस के दो सिपाहियों ने जो गुंडागर्दी की है, उसे देख कर राजधानी में लोगों को उस उपन्यास की याद ताजा हो आई जिसक नाम था वर्दीवाला गुंडा। वर्दी का मतलब गुंडागर्दी तो न हो। भगवानदास नामक एक खेतिहर मजदूर को सबेरे-सबेरे दो पुलिस वाले पूछताछ के लिए रोकते और थाने चलने के लिए कहते हैं। भगवानदास कारण पूछता है तो वर्दी के पीछे छिपा गुंडा जाग जाता है। बस गालियाँ-मारपीट शुरू। दो दिन तक उसे बुरी तरह पीटा जाता है। उसे पानी भी नहीं पीने दिया जाता। भाई खाना लेकर आता है तो उसे भगा दिया जाता है। दो दिन बाद बेचारा जमानत पर छूटता है और एसपी से मिल कर शिकायत करता है। एसपी उसका मुलाहिजा कराते हैं। इसके बाद होना तो यह चाहिए कि दोनों सिपाही निलंबित हों। उन पर और कड़ी कार्रवाई हो। वर्दी का मतलब यह नहीं कि किसी को भी राह चलते रोक दिया और पिटाई सुरू कर दी। ऐसी शिकायतें मिलने पर दोषी लोगों पर फौरन कार्रवाई करनी चाहिए। लेकिन ऐसा कम होता है। किसी पुलिस का कोई अपराध सामने आता है तो पुलिस विभाग लीपापोती करने में भिड़ जाता है। और यहीं से लोगों के मन में आक्रोश पनपता और सीधा-सादा आदमी भी अपराध की दिशा में मुड़ जाता है। अगर भगवानदास जैसे मजदूर अगर प्रतिशोध लेने के लिए कल को अपराधी या जंगल जा कर नक्सली बनते हैं, तो दोष किसका है, यह सोचने की बात है।
ये काले कारनामे वाले लेखक...
पिछले दिनों रायपुर में एक साहित्यिक कार्यक्रम में दिल्ली से पधारे एक लेखक जो जन्मजात ही शोक-मुक्त है, यानी 'अशोक' हैं, ने भाषण देते-देते कहा कि मुझे एक व्यक्ति का नाम नहीं याद आ रहा था तो मैं उस दिन कुछ ज्यादा ही दारू पी गया। उनके भाषण के इस अंश की जमकर चर्चा हुई। हो भी क्यों न। आजकल बहुत-से लेखकों की यह बीमारी हो गई है, कि वे अपने गलत-सलत कारनामों को इस तरह पेश करते हैं गोया उन्होंने बहादुरी का काम कर दिया है या फिर वे गाँधी की तरह सत्य के प्रयोग कर रहे हैं। अपनी लम्पटताओं को बताना सत्य का प्रयोग नहीं होता। एक लेखक ने एक बार एक तथाकथित बड़ी पत्रिका में अपने पापों का शान से जिक्र किया करते हुए बताया था, कि कैसे उसने बस्तर, रायपुर और बिलासपुर में औरतों के साथ मुँह काला किया। अपने घटिया कारनामों को उजागर करके ये लेखक सोचते हैं, कि हमने बड़े साहस का काम किया लेकिन वे भूल जाते हैं, कि उनकी इन गलत हरकतों को नये लेखक एक परम्परा की तरह भी लेते हैं, कि वो कर रहा है, तो हम क्यों नहीं कर सकते।
ये लाल रंग कब हमें छोड़ेगा?
हर दूसरे-चौथे दिन नक्सलियों द्वारा खून बहाने का सिलसिला जारी है। सामान्य जन की हत्याएँ भी ये लोग करने लगे हैं। आखिर ये कैसी क्रांति है जो लगातार खून माँग रही है। निरीह लोगों का खून बह रहा है और क्रांति करने वाले लोग अंधेरे में कहीं छिप कर अट्टहास कर रहे हैं। सरकार की विफलता पर हँस रहे हैं। म•ााक उड़ा रहे हैं। उन्हें चुनौती दे रहे हैं। हम अपने तंत्र को आखिर कब इतना मजबूत करेंगे कि नक्सली नाकाम हो जाएँ। पिछले दिनों पुलिस ने एक नक्सली को पकड़ा। इसी तरह सक्रियता के साथ काम करें तो और भी गिरफ्त में आएँगे। जरूरत इस बात की है कि पुलिस और अर्धसैनिक बल जुझारू तरीके से काम करे। बस्तर को एक चुनौती के रूप में लें, सजा के तौर पर नहीं। वहाँ जाने का मतलब है कि हम एक मिशन में जा रहे हैं। सरकार नक्सलियों से जूझने वाले लोगों के लिए और बेहतर पैकेज लाए। मनुष्यता विरोधी नक्सलियों की हरकतें देख कर लगता नहीं कि ये इतनी आसानी से लाल रंग को छोड़ेंगे। हमें ही उनसे मुकाबला करने के लिए तैयार रहना होगा।
महिला मुक्ति का ये चेहरा..
पिछले दिनों एक गाँव की एक महिला सरपंच को पिछले दिनों सिर्फ इसीलिए सरेराह पीटा गया, कि वह अवैध कब्जे हटा कर अपने कर्तव्य का निर्वहन कर रही थी। ऐसी कुछ और घटनाएँ सामने आई हैं, जब महिला सरपंच या अध्यक्ष के कार्यों को लोगों ने पसंद नहीं किया और महिला पदाधिकारी का अपमान करने की कोशिश की। दरअसरल पुरुषप्रधान समाज व्यवस्था में स्त्री को अधिकार सम्पन्न देखना बहुत-से पुरुषों को अब भी नागवार गुजरता है। जबकि सच्चाई यह है कि अब स्त्री को कोई रोक नहीं सकता। उसके हाथों में अधिकार देने ही होंगे। तभी वह कुछ काम कर सकती है। बराबरी का दर्जा भी तभी मिलेगा। अब समय आ गया है कि लोगों में यह जागृति भी लाई जाए कि वे अधिकारसम्पन्न औरतें की कार्रवाई से निपटने के लिए कानून का सहारा लें न कि बाहुबल का।
तरणताल बनाम मरणताल
गरमी के कारण लोगों का बुरा हाल है। जो लोग साधनसम्पन्न हैं, वे वातानुकूलित क क्षों में रह लेते हैं लेकिन अभी भी एक बड़ा वर्ग तपती दोपहरी में पसीना बहाते हुए काम करने पर विवश है। पैसे वाले लोग तो शाम को किसी महँगे तरणताल (स्वीमिंग पूल)में जाकर तैर कर शीतलता भी प्राप्त कर लेते हैं, लेकिन गरीब कहाँ जाए? उसके हिस्से के सारे ताल मरणताल (सूखे तालाब)बन गए है। या तो सूख गए है, या इतने गंदे हैं कि उनमें तैरना भी एक चुनौती है। फिर भी वे काम तो चला ही लेते हैं। लेकिन इसी बहाने दो तरह का समाज राजधानी में साफ-साफ दिखता है। एक तरणताल वाला समाज, जिसके पास सारा वैभव सिमट गया है, और दूसरा है मरणताल वाला समाज, जिसके पास पीने का स्वच्छ पानी भी नही है। तरणताल में डुबकी लगाना तो दूर की बात है।
ये प्रहसन बंद हो...
तालाब गहरीकरण या अन्य किसी कार्य केलिए जब कोई नेता या अफसर हाथ में कुदाली या फावड़ा थामे फोटो खिंचवाता है तो लोगों को समझ में आ जाता है कि यह एक प्रहसन है। इस पर केवल हँसा जा सकता है। हमारे अभिजात्य वर्ग के लोग कुदाली-फावड़े को छू कर केवल धन्य ही न करें, वरन एक-दो फुट का गड्ढा भी करें। लोगों को यह भी तो दिखे कि उन्होंने कुछ पसीना भी बहाया है और सचमुच लोगों को प्रेरणा दी है। केवर कुदाली उठाकर एक-दो घाँव मार देने से से प्रहसन तो हो सकता है, किसी का प्रेरणा नहीं मिल सकती। जब कभी ऐसे अवसर आएँ तो अभिजात्य वर्ग के लोगों को सब कुछ भूलभाल कर भिड़ जाना चाहिए और सचमुच कुछ घंटे श्रमदान करके इतिहास रच देना चाहिए। बेशक वे ऐसा कर सकते हैं, लेकिन आसपास के चमचेनुमा लोग ऐसा करने ही नहीं देते। यही कारण है कि हमारे बहुत से काम केवल प्रहसन बन कर रह जाते हैं।

2 Comments:

कडुवासच said...

...सार्थक पोस्ट !!!

Udan Tashtari said...

अच्छी पोस्ट.

सुनिए गिरीश पंकज को